चोटी की पकड़–70
उन्नीस
मुन्ना खजानची खोदाबख्श के यहाँ गई। दूसरी औरत से खजानची का तअल्लुक कराकर, दूसरे मर्द से रिश्वत दिलाकर, 'एक औरत से उसका तअल्लुक हो गया है
उसकी बीवी से कहकर लड़ाकर, बिगड़ाकर, राजा साहब के नकली दस्तखत से 'इंप्रेस्ट से रुपया निकलवाकर, गवाह तैयार करके मुन्ना ने खजानची को कहीं का न रखा था। उसको पुरस्कार भी मिलता था। इन कामों में रानी साहिबा का हाथ था।
धीरे-धीरे रानी का प्रेम घनीभूत किया गया। दो-एक बार रात को कोठी में बुलाकर खिलाया पिलाया गया। खजानची की कल्पना दूर तक चढ़ गई। रानी का चरित्र जैसा था, उससे उन्हें जल्द सफल होकर राज्य करने में अविश्वास न रहा।
कुंजी देते हुए मुन्ना ने कहा, "रानी साहिबा ने कहा है, अब तुम यहाँ तक आ गए।" कहकर उसने अपनी छाती पर हाथ रखा।
खोदाबख्श खुश होकर बोले, "मेहरबानी !"
मुन्ना ने कहा, "आप आज ही जाइए और हिसाब लगाकर मुझे बताइएगा, मैं राह पर पीपल के नीचे मिलूँगी, कितना रुपया निकाला गया। आपको तो मालूम है, काम दूसरे से कराया जाता है, हिसाब दूसरे से लिया जाता है।
जिसने रुपया निकाला वह खा नहीं गया, मालूम हो जाएगा। फिर उसी तरह बिल बनाकर जरूरी लिखकर सही करा लीजिए। रानी साहिबा वह बिल देखकर वापस कर देंगी। एकाउंटटेंट के पास बाद को भेज दीजिए। काम हो जाने पर इनाम मिलेगा।"
कहकर मुन्ना लौटी। खजानची देखते रहे। सोचते रहे। उनसे नोटों-वाले संदूक की कुंजी ली गई थी। अंदाजन दो लाख रुपया था। सोचकर काँपे। दो लाख रुपए का जाल।
इंप्रेस्ट से हजार-पाँच सौ रुपए निकाल लेना बड़ी बात नहीं। एकाउंटेंट को शक नहीं होता। दो-दो लाख का बिल ! इतना रुपया तो मालगुजारी के वक्त ही जाता है।
मुन्ना ने यह रुपएवाला जाल अपनी तरफ से किया था। रानी साहिबा को इसकी खबर न थी। बुआ को झुकाने के लिए उन्होंने आज्ञा दी थी
कि किसी सिपाही या जमादार से फैमा दी जाए, कुंजी उनके हाथ में रहे; लेकिन मुन्ना ने लंबा हाथ मारा।
खजानची ग्यारह बजे के करीब खज़ाने आए। जटाशंकर बैठे थे। ख़जाने में उस समय राजाराम का पहरा बदल चुका था। रामरतन था। उसने बहुत तरह की बातें सुनी थीं।
पर वह आदी था। खड़ा रहा। खजानची ने वही संदूक खोला। संदूक में एक भी नोट न था। संदूक का बीजक निकालकर देखा, दो लाख तेरह हजार के नोट थे।